न्याय-मंत्री हिंदी कहानीा।

न्याय-मंतरी

स्ंधया का समय था। चारो ओर अंधकार फैल चुका था। ऐसे में किसी ने घर का दरवाजा खटखटाया ‘‘कौन?’’ ब्राहाण षिषुपाल ने दरवाजा खोलते हुए पूछा।

‘‘एक परदेसी’’ बाहर से आवाज आई, ‘‘क्या मुझे रात काटने के लिए स्थन मिल जाएगा?’

षिषुपाल ने दरवाजा खोला। उनके सामने एक नवयुवक खड़ा था। मुस्कुराका कहा, ‘‘यह मेरा सौभाग्य है। अतिथि के चरणों से यह घर पवित्र हो जाएगा। आइए, पधारिए। ’’ अतिथि को लेेकर षिषुपाल अंदर घर में गए। षिषुपाल के पुत्र ने अतिथि का अंदर-सत्कार किया। यह देख परदेसी मुग्ध हो गया।


भोजन आदि से निबटकर दोनों बाते कर करने लगे। बात देष की अव्यवसथ पर चल रही थी। षिषुपाल बोल उठे,

‘‘आजकल बड़ा अन्याय हो रहा है। मेरा तो खुन खौल उठता है।’’

परन्तु परदेसी इस बात से सहमत न था। कुछ चिढ़क वह बोल उठा, ‘‘दोष निकालना तो सुगम है, परन्तु कुछ करके दिखाना कठिना।’’

शिशुपाल के लिए यह एक खुली चुनौती थी। बोले, ‘‘अवसर मिले तो दिखा दूॅ कि न्याय किसे कहते हैं?’’ तो आप अवसर चाहते हैं?’’

‘‘हॉ अवसर चाहता हूूॅं।’’

‘‘फिर कोई अन्याय नहीं होगा?’’

‘‘बिल्कुल नहीं।’’

‘‘कोई अपराघी दंड से न बचेगा?’’

‘‘नहीं’’


परदेसी ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘यह बहुत कठिन काम है।’’

‘‘ब्राहाण के लिए कुछ भी कठिन नही है। मैं न्याय का डंका बजाकर दिख दूॅंगा।

प्रदेसी के मुख पर घीरे से मुस्कराहट टाई और चली गई।। इसके बाद भी उनकी बाते चलती रहीं। कुछ देर बाद वे सो गए।

सुबह उठकर परदेसी नेशिशुपाल को धन्यवाद देकर उनसे विदा ली

कुछ दिनो बाद शिशुपाल का घर पूछते-पूछते कुछ सिपाही  आए और उन्हें दरबार में चजने के लिए निवेदन किया। कुछ दिनों बाद शिशुपाल सहम गए। वे यह नही समझ सके कि सम्राट ने उन्हें क्यों बुलाया है? ‘कही उस उस परदेसी ने तो सम्राट से झूठी-सच्ची शिकायत तो नहीं कर दी?’ यह सोचते-सोचते वे सिपाहियों के साथ चल पड़े।

दरबार में पहुॅंचकर शिशुपाल का कलेजा धड़कने लगा। तभी सम्राट अशोक में पधारे और मुस्कराते हुए बोले,

‘‘ब्राहाण देवता, आपने मुझे पहचान ही लिया होगा। याद हैं, आपने कहा था कि यदि मुझे अवसर दिया तो मैं न्याय का डंका बजा दूॅगा। मैं आपको  अवसर देना चाहता हूॅ?’’

प्हले तो शिशुपाल कुछ घबराएं परन्तु फिर उन्होंने बड़ी शांति से गर्दन डठाकर कहा,’’ यदि सम्रराट की यही इच्छा है, तो मैं तैयार हूॅ।’’

‘‘बहुत ठीक, आप न्याय-मंत्री हुए’’ सम्राट ने कहा और अपने हाथ से अंगूठी उतारकर शिशुपाल को पहना दी। यह सम्राट अशोक की राज-मुद्रा थी।

‘‘अब शिशुपाल न्याय-मंत्री थे। उन्होंने राज्य की समुचित व्यवयस्था करानी आरम्भ कर दी। उनके सुप्रबन्घ से राज्य में पूरी तरह शांति रहने लगी। किसी को किसी प्रकार का भय नहीं था। लोग घर के दरवाजे तक खुला छोड़ जाते थे। चारों तरफ न्याय-मंत्री के सुप्रबन्ध और न्याय की धुम मच गई।

लगभग एक महीने बाद किसी ने रात मे एक पहरेदार की हत्या कर दी। सुबह होते ही चारो तरफ जंगल में लगी आग की तरह फेल गई। लोग बड़़े हेरान थे। शिशुपाल की तो नींद ही उड़ गई। उनहोने खाना पीना छोड़कर अपराधी का पता लगाने में रात-दीन एक कर दिया।

बहुत प्रयतन करने के बाद जब अपरादी का पता चला तो शिशुपाल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। स्वयं समम्राट ने उस पहरेदार की हत्या की थी। सम्राट को अपराधी घोषित करना बहुत कठिन काम था। शिशुपाल करें भी तो क्या करें? एक ओर वे न्याय-मंत्री और दूसरी तरफ सम्राट के सेवक। पान्तु न्याय की दृष्टि से सम्राट और साधारण व्यकित में कोई अन्तर नहीं होता।

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